Maulana Wahiduddin Khan I tehelkahindi.com I Feruary Issue 3, 2015
अतिवाद के दो मतलब होते हैं. मेरे हिसाब से इनमें से एक मतलब सही होता है और दूसरा मतलब गलत होता है. इस्लामिक अतिवाद का एक मतलब है धर्म की बुनियादी बातों के साथ टिके रहना या वफादार बने रहना. मौजूदा वक्त मजहबी आजादी का है. अगर कोई इंसान यह कहता है कि वह पूरी तरह से अपने मजहब के साथ वफादार बना रहेगा, तो उस पर सवाल उठाने की कोई वजह नहीं है. ऐसा इंसान केवल अपनी मजहबी आजादी के हक का इस्तेमाल कर रहा है. लेकिन अगर इस्लामिक अतिवाद को उसके दूसरे मायने में लिया जाए, यानी जबरदस्ती दूसरों पर इसे थोपने के अर्थ में तो यह गलत है. अगर कोई मुसलमान यह कहे कि वह अपने मजहब के मामले में दूसरों के साथ कोई समझौता नहीं करेगा और अपने मजहब की शिक्षाओं को दूसरों पर जबरदस्ती थोपेगा, तो यह इस्लामिक अतिवाद न केवल इस्लाम की भावना, बल्कि तार्किकता के भी खिलाफ होगा.
इस्लामिक अतिवाद की इस दूसरी संकल्पना ने ही उस रूप को जन्म दिया है, जिसे आधुनिक समय में इस्लामिक आतंकवाद कहा जाता है. लेकिन सच्चाई यह है कि इस्लामिक आतंकवाद जैसी शब्दों की जुगलबंदी परस्पर विरोधी हैं. इस्लाम सहिष्णुता और शांति का धर्म है. इस्लाम के पैगंबर ने एक बार कहा था- ‘मेरे हिसाब से जो मजहब है वह है दयालुता और सहिष्णुता का मजहब.’ (मुसनाद अहमद) इस्लाम आध्यात्मिक विकास की तरकीब है. इसका मकसद है इंसान के भीतर खुदा. (3:79)
विभिन्न मुसलिम इलाकों में हम जो हिंसा और विद्रोह देख रहे हैं, वह सामान्य तरीके की हिंसा नहीं है. यह वैचारिक रूप से न्यायोचित ठहराने की कोशिश में की जा रही हिंसा का एक उदाहरण है.
इस्लाम के नाम पर हिंसा या आतंकवाद की जड़ें बीसवीं सदी के मुसलिम विचारकों तक पहुंचती हैं, जिन्होंने यह विचार दिया कि इस्लाम एक पूर्ण व्यवस्था है और राजनीतिक शक्ति इसका एक जरूरी हिस्सा है, क्योंकि इसके बगैर इस्लाम को एक संपूर्ण जीवन पद्धति के तौर पर लागू नहीं किया जा सकता. जो लोग इस्लाम की राजनीतिक व्याख्या से प्रभावित थे, उन्होंने इसे समाज में एक राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर लागू करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने देखा कि राजनीतिक पद तो पहले से किसी और समूह के कब्जे में है. ऐसे में उन्हें लगा कि इस्लामिक राज्य की स्थापना के लिए मौजूदा शासकों को पद से हटाना अनिवार्य है. इस तरह तत्कालीन राजनीतिक शक्तियों को सत्ता से हटाना समाज में इस्लामिक राजनीतिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए एक अनिवार्यता बन गया. इसके बाद जब पहले से राजनीतिक सत्ता में मौजूद लोगों ने पद त्यागने से इंकार किया, तब जो लोग राजनीतिक इस्लाम में विश्वास करते थे, उन्होंने पुराने शासकों को रास्ते से हटाने के लिए हिंसा और आतंक का सहारा लिया.
इस्लामी आतंकवाद की जड़ें बीसवीं सदी के उन मुसलिम विचारकों से जुड़ी हैं जिन्होंने यह विचार दिया कि इस्लाम एक पूर्ण व्यवस्था है और राजनीतिक शक्ति इसका एक जरूरी हिस्सा है
यह वही राजनीतिक इस्लाम की विचारधारा है जिसने मौजूदा वक्त के मुस्लिम युवाओं को आतंकवाद के प्रति आकर्षित किया है. ये लोग तब तक इस क्षेत्र में सक्रिय रहेंगे जब तक इस तरह की विचारधारा को गैरइस्लामी और पैगंबर के विचारों के खिलाफ कहकर खारिज न कर दिया जाए.
लोकतंत्र दरअसल शासन का वह तरीका है जिसमें लोगों के प्रतिनिधि ही समाज के सामाजिक-राजनीतिक कामकाज की जिम्मेदारी संभालते हैं. यह व्यवस्था एक प्राकृतिक व्यवस्था है. इस्लाम एक प्राकृतिक धर्म है और ऐसे में इस्लाम भी इस प्रकार की शासन व्यवस्था को स्वीकार करता है.
दरअसल मानव जीवन के दो अलग-अलग हिस्से हैं- व्यक्तिगत और सामाजिक. जहां तक व्यक्तिगत मामलों का ताल्लुक है, हर इंसान अपने हिसाब से किसी भी तरह की जीवन पद्धति अपनाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन तब तक, जब तक इसकी वजह से समाज को कोई नुकसान न पहुंचे. इस मामले में किसी भी तरह की कोई सीमा नहीं है.
हालांकि, जब बात समाज की आती है, तब हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह काफी सारे लोगों से मिलकर बनता है. यहां हर इंसान अपनी सोच के मुताबिक रहना चाहता है. इस तरह के मामले के लिए इस्लाम हमें एक काफी व्यावहारिक तरीका बताता है. इसके मुताबिक, सामाजिक मामलों में यह निर्णय करने का अधिकार समाज के पास है कि सामाजिक मामलों का प्रबंधन किस तरह किया जाए. कुरान में इस सूत्र को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है- ‘अमरुहुमशुराबायनाहुम’ (42:38) इसका मतलब है- ‘(जो लोग) अपने मामले आपसी विचार-विमर्श के जरिए निपटाते हैं.’ इस्लाम के मुताबिक, लोकतंत्र का यही सूत्र है. इसका मतलब यह है कि व्यक्तिगत स्तर पर हर इंसान अपनी पसंद के मुताबिक जिदगी जीने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन जहां तक सामाजिक मामलों का सवाल है, इनको सामाजिक विचार-विमर्श के जरिए प्रबंधित किया जाएगा. यही लोकतंत्र का सच्चा अर्थ है और शासन के इस तरीके की इस्लाम वकालत करता है.
लोकतंत्र कोई धार्मिक संकल्पना नहीं है. दरअसल यह सामाजिक संकल्पना है. लोकतंत्र मूल रूप से एक धर्मनिरपेक्ष सूत्र है जिसका मतलब है धर्म के प्रति अहस्तक्षेप के सिद्धांत को स्वीकार करना. लोकतंत्र धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता. धार्मिक मामले लोगों के व्यक्तिगत कार्यक्षेत्र में आते हैं. लोकतंत्र की व्यवस्था में धर्म को पूरी तरह से व्यक्ति पर छोड़ा गया है. लोकतंत्र केवल उन्हीं मामलों पर ध्यान देता है, जो समाज के सभी सदस्यों के साथ जुड़े हों. यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र के इस रूप को इस्लाम स्वीकार करता है.
भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मुसलिम युवा घृणा फैलानेवाली सामग्री से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं. यह इस्लाम के बारे में उनकी गहरी जानकारी के अभाव की वजह से है
भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां समाज के सभी वर्गों को स्वतंत्रता और अवसर समान रूप से मुहैया कराए गए हैं. विभिन्न क्षेत्रों में मुस्लिमों की बेहतर स्थिति मुस्लिम समुदाय के विकास के लिए मौजूद अवसरों की गवाही देती है. अगर कुछ दिक्कतें हैं, तो यह याद रखा जाना चाहिए कि समस्याएं हर समाज में होती हैं. ऐसा कोई भी समाज नहीं है जिसे सभी व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों के लिए एक आदर्श समाज कहा जा सके. ऐसे में भारत में मुसलमानों को इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए- ‘समस्याओं पर ध्यान न दो और अवसरों का लाभ उठाओ.’
केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में मुसलिम युवा घृणा फैलानेवाली सामग्री से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं. ऐसी सामग्री सोशल नेटवर्किंग माध्यमों में बड़ी मात्रा में उपलब्ध है. यह इस्लाम के बारे में गहरी जानकारी के अभाव की वजह से है. अगर अपने धर्म की रक्षा के लिए उन्हें प्रेरित करने के लिए भड़काऊ चित्र या आग लगानेवाली भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, तो वे भावनात्मक रूप से प्रेरित हो जाते हैं. उन्हें लगता है आतंकी संगठनों के साथ जुड़कर वे अपने मजहब की खिदमत कर सकते हैं. यह उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया मात्र है और इसकी वजह है उनकी अपने मजहब के बारे में जानकारी की कमी. यह दरअसल एक शांतिप्रिय धर्म है. मुस्लिम युवाओं के आतंकी संगठनों से जुड़ने की समस्या का हल केवल उन्हें शिक्षित करने और इस्लाम का शांतिप्रिय साहित्य उनके बीच बांटने से ही होगा.
हिंसा और आतंकवाद, जो हम मौजूदा वक्त में देखते हैं, वह वास्तव में इस्लाम से भटकाव का नतीजा है. आज जो बात जरूरी है, वह है मूल इस्लाम की ओर लौटना. हमें यह देखना होगा कि इस्लाम की पवित्र बातें, कुरान और पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाएं क्या बताती हैं. अगर हम इस्लाम की वास्तविक भावना को समझ लेंगे, तो धर्म के नाम पर जो खून खराबा हो रहा है, वह खत्म हो जाएगा.
भारतीय मुसलमानों को मौजूदा वक्त में शांति के महत्व को समझना चाहिए. कोई भी चीज, जो इस्लाम के साथ हिंसा को जोड़ती हो, उसकी निंदा की जानी चाहिए. मौजूदा परिस्थितियों में विकास के पीछे जो दो अहम कारक हैं, वे हैं शांति और स्वतंत्रता. भारत में मुसलमानों को ये दोनों ही उपलब्ध हैं. ऐसे में अपनी उन्नति और विकास के लिए उन्हें इन दोनों कारकों का हर संभव इस्तेमाल करना चाहिए.